मैकलुस्कीगंज है भारत का मिनी लंदन, लोग इसे भूतहा जगह भी कहते हैं, आइए जानते हैं इस जगह की खासियत

झारखंड में एक जगह ऐसा भी है जिसे झारखंड का लंदन व गोरों का गांव के नाम से जाना जाता है. कहा जाता है कि किसी समय यहां चार सौ गोरे परिवार रहते थे. पर अब यह संख्या घटकर 30-40 के आसपास रह गई है. पहाड़ों के बीच बसने वाला ये कस्बा फिल्म निर्माताओं पर्यटकों, पत्रकारों, के बीच अपना नाम बना चुका है. इस जंगली इलाके में लोगों का रहन-सहन उनकी घर कोठरी बनाने का तरीका लोगों को बड़ी आकर्षित करती है. आईए जानते हैं इसकी कुछ इतिहासों के बारे में.


यहां के प्रकृति व आबोहवा के दीवाने हो गए थे अंग्रेज-
1932-33 के आसपास कोलकाता के एंग्लो इंडियन व्यवसायी अर्नेस्ट टिमोथी मैकलुस्की ने ही अपने ग्रुप के लोगों को यहां बसाया था. मैकलुस्की यहां आमतौर पर शिकार खेलने आया करते थे. यहां की प्रकृति व आबोहवा के दीवाने हो गए और यहीं बसने का निर्णय ले लिया. समय के साथ यहां इसकी आबादी घटती चली गई. आज का मिनी लंदन कहा जाने वाला ये कस्बा लगभग 10 हजार एकड़ जमीन पर फैला हुआ है. मैकलुस्की ने भारतवर्ष से कुल 2 लाख एंग्लो इँडियन को यहां बसने को लेकर आमंत्रण दिया था. कोलाकाता व अन्य जगहों से कई धनी एंग्लो इंडिन परिवारों ने यहां अपना डेरा जमाया. अपनी जमीने खरीद कर कई आकर्षक घर भी बनाए. चर्च, मंदिर, मस्जिद बहुत कुछ बनवाए.


और फिर बन गया मिनी लंदन-
यहां रहने वाला समाज पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करने लगा. यही कारण है कि ुनका रहन सहन बात करने का शैली सारा कुछ पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित था जो कि स्थानीय लोगों से मिल नहीं पाए और फिर यह गांव मिनी लंदन में परिवर्तित हो गया. यहां एक छोटी से डेगा नदी है जिससे लोग अपनी रोजमर्रा की जरुरतें पूरी करते हैं. इसपर एक टूटा फूटा पूल भी है जिसपर बैठकर आप घंटो क्वालिटी टाइम स्पेंड कर सकते हैं.


करीब 150 लोग अमेरिका, ब्रिटेन व आस्ट्रेलिया चले गए-
सैकेंड वर्ल्ड वार के बाद एंग्लों इंडियन के परिवारों के बच्चों के लिए यह जगह असुरक्षित लगने लगी और फिर यहां से वे पलायन करना शुरु कर दिए. आजादी के बाद सिर्फ 200 एंग्लो इंडियन ही यहां बचे थे. 1957 में बिहार के उस समय के राज्यपाल जाकिर हुसैन ने यहां को लोगों को सलाह दी की अब भी जो अपना परदेश जाना चाहते हैं जा सकते हैं उनके लिए सरकार व्यवस्था करवाएगी. राज्यपाल के इस सलाह पर लगभग 150 लोग अमेरिका, ब्रिटेन व आस्ट्रेलिया चले गए.


मैक्लुस्की के पिता बनारस के ब्राह्मण लड़की से की थी शादी-
मैक्लुस्की के पिता रेलवे में नौकरी करते थे जो आइरिश थे, उस दौरान उन्हे बनारस की एक लड़की से प्रेम हो गया था औऱ विरोध के बाद भी वे शादी कर लिए थे औऱ फिर उसने मैक्लुस्की गंज नाम के इश गांव की नींव रखी. वो बंगाल विधान परिसद के सदस्य भी थे. इस जगह पर आपको सांप्रदायिक सहिष्णुता का दिलकश नमूना देखने को मिलेगा. यहां एंग्लो इंडिन के द्वारा मंदिर व चर्च दोनों बनवाए गए थे. यहां के पुराने बंग्ले को आज कॉलेजों में तब्दील कर दिया गया है. आज भी यहां के लोग उस दौर को याद करते हैं. काफी सारे लोग ये गांव छोड़ इंग्लेंड चले गए और यहां कुछ ही लोग रह गए. खाली हो गए बंग्ले के वजह से इसे लोग भूतहा बंग्ला कहने लगे हैं.


एग्लों इंडियन केटी टेक्सरा काफी फेमस रही है-
इस गांव की एग्लों इंडियन केटी टेक्सरा काफी फेमस रही है, इन्हें लोग किटी मेम साहब के नाम से पुकारते हैं. यहां आने वाले ज्यादातर सैलानी उनसे मिलना चाहते हैं. किट्टी मेमसाब ने शोहरत तो कमाई ही पर गुरबत भी उसने अपने जमाने में बहुत झोला. पढ़ी लिखी तो नहीं थी पर अमग्रेजी बोल लेती थी. कुछ वर्ष पहले वो मैक्लुस्कीगंज स्टेशन पर फल बेचा करती थी. जब वो स्व्सथ थी तो फल बेच कर जैसे तैसे उसने अपने बच्चे को पढ़ाया. उसने स्थानीय निवासी रमेश मुंडा से शादी कर ली थी. इनकी एतिहासिक व गौरवपुर्ण अतीत उनके घर के दीवार पर पिक्चर के रुप में लटकी है.


मैकलुस्कीगंज जाने का रास्ता-
यहां पहुंचने के लिए रेलवे मार्ग, सड़क मार्ग व हवाई मार्ग तीनों से जा सकते हैं. यहां पक्के सड़क बने हुए हैं. घने जंगलों के बीच बने होने के कारण यहां का मौसम सालों पर सुहाना होता है. न अधिक गर्मी न ही अधिक ठंड रहता है. इस कस्बे की सुंदरता देखने के लिए आप यहां दो दिन रुक सकते हैं. यहां कई पुराने बंग्ले को गेस्ट हाउस बना दिया है, यहां आकर रात में ठहरने वाले लोग अंग्रेजों के जमाने वाले बंग्ले में रुकना पसंद करते हैं. जिसका एक दिन का चार्ज 1,500 रुपए होता है.

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